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नारी विमर्श >> शादी से पेशतर

शादी से पेशतर

शर्मिला बोहरा

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2489
आईएसबीएन :81-267-0179-x

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कोलाज़नुमा लघु उपन्यास जिसमें लेखिका बिना किसी लेखकीय टिप्पणी और गुरुगम्भीरता के शादी का इन्तज़ार करती हुई लड़कियों से हमारी मुलाकात करवाती है

Shadi se peshtar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

शादी, ख़ासकर लड़कियों की एक कठिन, जटिल और अत्याधुनिक समस्या बनती जा रही है। वह जीवन का एक मुकाम है, परम और चरम लक्ष्य नहीं, ऐसी प्रतीत पढ़ी-लिखी और तथाकथित और आधुनिक लड़की को भी नहीं हो पाती क्योंकि बहुत कुछ बदलने के बावजूद समाज जस का तस रह गया है। जींस पहनने वाली बाल कटी लड़की राहगिरों को भले ही आजाद, खिलन्दड़ और कभी-कभी लड़का तक होने का आभास दे या भ्रम पैदा करे, लेकिन उसकी और उसके संकटग्रस्त माता-पिता की तलाश अच्छा-सा लड़का और ठीक-ठाक घर ढूँढ़ने से आगे नहीं जा पाती। यह तलाश एक अथक और जान लेवा प्रयत्न बन जाती है और बार-बार असफल होने पर एक ऐसी प्रतीक्षा का रूप ले लेती है, जो तरह-तरह के भय, नये-नये नुस्खे आजमाने, ज्योतिषियों के चक्कर लगाने और समय को भरने के दबाव पैदा करती रहती है।

जब तक शादी न हो तब लड़की क्या करे ? शादी से पेशतर की कई लड़कियों में एक डेज़ी कहती है, ‘‘कुछ सोचो मत बस करती चली जाओ।’’ क्या करती चली जाओ ? नये-नये कोर्स-ब्यूटीशियन बनने के, कम्प्यूटर विशेषज्ञ बनने के, इंजीनियर डेकोरेटर बनने के और न जाने क्या-क्या। इस करते जाने के पीछे एक धुँधला-सा संकेत अपने पैरों पर खड़े होने का भी जरूर रहता है, लेकिन वह शादी को ‘मोक्ष’ मानने के कारण ठोस रूप ग्रहण नहीं कर पाता। शादी से पेशतर हमें एक अन्तःपुर के एकदम भीतर ले जाता है, जिसकी विदीर्णता का हम अनुमान नहीं लगा पाते क्योंकि हमें जो दिखाई पड़ता है उसी को देख रहे होते हैं।

यह एक ऐसा कोलाज़नुमा लघु उपन्यास है जो सरसरी दृष्टि से पढ़ने पर सतह पर ही तैरता मालूम पड़ता है, पर ध्यान देने पर यह बताता है कि सतह सिर्फ़ सतही ही नहीं होती, उसमें नीचे गहराई और डूबी रहती है। लेखिका बिना किसी लेखकीय टिप्पणी और गुरुगम्भीरता के शादी का इन्तज़ार करती हुई लड़कियों से हमारी इस तरह मुलाकात करवाती है कि हम परेशानी महसूस करने लगते हैं। वह हमें लड़की देखने आये लोगों में बैठा देती है।


….about waiting, about unending expectation, about the moment that comes before something which itself never comes but which in the process reduces everyone to a frozen state of clown-like, pathetic banality in which only limited motion is possible in virtually the same place………….

-EDWARD SAID

....इंतजार, बेइंतिहा आस, वह पल जो चीज के होने के पहले आता है पर कभी नहीं आता, अपने न आने से हर चीज को मसखरी और दयनीय तुच्छता में जड़ीभूत कर देता है, जिसमें उसी स्थान पर बहुत थोड़ा हिलना-डुलना ही मुमकिन है.....

-एडवर्ड सइद

शादी से पेशतर
अँधेरे में


नींद में पूर्णिमा पानी में चल रही थी। छपाक-छपाक की आवाज के साथ एक और आवाज सुनाई पड़ी। लगा, कोई उसका कन्धा हिला रहा है। नदी के पास वह अकेली थी। फिर कौन था ? इधर-उधर सिर घुमाया, कोई भी तो नहीं। आश्वस्त हो फिर चलने लगी। तभी वही आवाज एक बार फिर सुनाई पड़ी, ‘उठो’। इस बार पूर्णिमा की नींद टूट गई। वह झट से उठ बैठी। आँखों के सामने मम्मी का डरा हुआ चेहरा दिखलाई पड़ा। घबड़ाकर उसने पूछा, ‘जाओ, पापा बुला रहे हैं।’
‘क्यों ? पर क्यों ?’ डर से पूर्णिमा की आँखे फैल गई, ‘मुझे ?’
‘तुम्हें ही नहीं, मीता को भी।’

पूर्णिमा ने सहमकर पूछा, ‘क्या बात है मम्मी ?’ मम्मी ने झुँझलाकर कहा, ‘उन्हीं से पूछो। मुझे क्या पता।’ पूर्णिमा फिर बोली, ‘तो क्या आज भी वही बात कहेंगे ?’ मम्मी ने शब्दों को चबा-चबाकर कहा, ‘मालूम नहीं।’
पूर्णिमा पैरों पर पड़ी सफेद चादर को हाथ से सरका अपने शरीर को घसीटकर गद्दे के किनारे ले आई और मम्मी के पीछे-पीछे कमरे से निकल गई।
रात के दो बज रह थे। पापा के कमरे में अँधेरा था। कमरे से गर्म हवा उठ रही थी, जो पापा से निकलती हुई गोल-गोल घूम रही थी। कमरे में पड़ी हर चीज किसी अदृश्य डर से सहमी-सिकुड़ी पड़ी थी। खिड़की से आती सफेद रोशनी की धार में पूर्णिमा ने देखा, पापा जमीन पर तकिए को मोड़ उसे गिंडी बना उस पर सिर रख लेटे हुए थे। उनका एक हाथ तकिए पर सिर के पीछे और दूसरा मुँह पर सोचने की मुद्रा में था। मीता वहाँ पहले से खड़ी थी। दोनों हाथ बाँधे, तनकर। पूर्णिमा भी बगल में खड़ी हो गई।

पापा चुप थे। तीनों को खड़े दस-पन्द्रह मिनट गए थे। तब खामोशी को तोड़ती पापा की आवाज़ आई, ‘एक-एक कर तुम दोनों बताओ, मेरी बात मानोगी या नहीं।’ मम्मी की तरफ अंगुली दिखाकर घूरते हुए बोले, ‘तुम भी।’
मीता की भौंहें सिकुड़ गईं। पूर्णिमा ने अपने हाथ बाँध लिये। यकायक पापा झट से उठ बैठे। तकिए को जमीन पर रख लिया और चीखे, ‘जवाब क्यों नहीं देतीं ?’
किसी तरह अपने को रोके हुई मीता अब फट पड़ी, ‘आपकी बात तो मानते आए हैं, अब तक।’ मीता को आवेश में देखकर मम्मी और पूर्णिमा सहम गईं। पापा का गुस्सा बेकाबू हो गया था। उन्होंने लपककर मारने के सिए हाथ घुमाया। मीता उनका उठा हाथ देख तमक उठी- ‘चमका क्यों रहे हैं, मारिए।’
‘क्या कहा ? मैं चमका रहा हूँ एक बार फिर कहो, मैं हाथ चमका रहा हूँ !’

पूर्णिमा जल्दी से मीता का हाथ पकड़ उसे घसीटते हुए अपने कमरे में ले आई। मीता ने हाथ छुड़ाते हुए कहा, ‘छोड़ो। देखे तो सही क्या करते हैं। रोज-रोज का नाटक।’
पीछे से पापा बोले, ‘क्या कहा ?’ नाटक ! मैं नाटक करता हूँ !’ पूर्णिमा ने जल्दी से मीता को गद्दे पर ठेल इशारे से मम्मी को अन्दर बुलाया। और धड़ाक की आवाज़ के साथ दरवाजा बन्द कर काँपते हाथों से सिटकनी चढ़ा ली। मम्मी रिरियाते हुए बोली, ‘मीता क्या तुम चुप नहीं रह सकतीं, वह जो पूछें, जो कहें हाँ, हाँ कर दो। क्या जाएगा तुम्हारा।’
मीता बोली, ‘अब तुम शुरू मत होवो। बाहर वह, अन्दर तुम। तुमने तो हमेशा ही हाँ-हाँ की। क्या मिला !’
बाहर पापा का बड़बड़ाना जारी था। वह हाँफते हुए बोले जा रहे थे, ‘देखता हूँ कैसे करती हैं मनमानी। मीता की बच्ची को तो आज छोडूँगा नहीं।’ कुछ देर बाद पापा चुप हो गए। मम्मी कमरे में घुटनों को मोड़ जमीन पर गठरी बन बैठ गई। एकाएक पूर्णिमा मीता की तरफ अंगुली दिखा, आँखें बड़ी करते हुए पापा के अन्दाज में बोली, ‘सब तुम्हारे कारण होता है।’ पूर्णिमा चौंकी, ‘मेरे कारण ! मेरे कारण कैसे ? क्या किया मैंने ?’

मीता मुँह चिढ़ाते हुए बोली, ‘ज्यादा बनो मत। तुम्हें नहीं पता कि तुमने क्या किया है। जानती हो, पापा ने आज तुम्हें पार्क सर्कस मोड़ पर देखा था। मैंने तुम्हें हजार बार समझाया था- मत करो, दीदी, यह कोर्स मत ज्वायन करो। गई थी मॉण्टेसरी कोर्स करने ! रोज जाओ ! पापा इसी तरह करेंगे। यह सब मम्मी की शह का नतीजा है। तुमने मम्मी से कहा मम्मी मुझे यह कोर्स करना है, मम्मी बोली, कर लो। पता नहीं, मम्मी को क्या हो जाता है। मम्मी हमसे ज्यादा जानती है, पापा करने नहीं देंगे। कहते हैं, क्या आनी-जानी है इन सबमें। तुमने मम्मी को पट्टी पढ़ाई, कहा, पापा को मालूम नहीं पड़ेगा मानों पापा किसी दूसरे शहर में रहते हैं।’ मीता बोलती रही, ‘ऊँह, पता नहीं चलेगा। अब देखना, रोज यही होगा। पर इससे तुम्हें क्या ! तुम तो कर लोगी।’

मीता की बातें सुन पूर्णिमा बिफर पड़ी, बोली, ‘तुम कौन होती हो मुझ पर चिल्लानेवाली। मुझे जो समझ में आएगा, वह मैं करूँगी। रही बात पापा की तो उनसे मैं निपट लूँगी। उन्हें समझाऊँगी।’ मीता दाँत पीसते हुए बोली, ‘और वह समझ जाएँगे। तुम्हारी बात हैं न ! तुमसे तो उन्हें हमदर्दी है। मुझे ही रोक सकते हैं, तुम्हें नहीं। इस घर में हमेशा यही हुआ है। तुम्हारे लिए नियम अलग, मेरे लिए अलग।’
पूर्णिमा खीजी, ‘क्यों झूठ बोलती हो !’
क्या झूठ बोला मैंने ? मैं भी तो खाली बैठी हूँ ग्रेजुएशन करके। मैं क्या कम बोर होती हूँ। मुझे तो मम्मी ने नहीं कहा कि मीता तुम कोई कोर्स कर लो। तुम्हारे लिए सोचती हैं, तभी पापा के डर के बाद भी तुम्हें हाँ कर दी और तुमने कोर्स भी ज्वायन कर लिया। भले हम साल-भर तक इसी तरह जागते रहें। तुम हो ही सेलफिश।’

अचानक दरवाजा भड़भड़ाने की आवाज आई। पापा जोर-जोर से दरवाजा पीट रहे थे, ‘खोलो, मैं कहता हूँ खोलो।’ पागलों की तरह चिल्लाने लगे, ‘नहीं खोलोगी क्या ? झगड़ रही हैं, एकदम ढीठ हो गई हैं।’ पूर्णिमा से सिर पर आवाजें हथौड़े की तरह पड़ने लगीं। मीता ने दरवाजे तरफ देखकर कहा, ‘छिः नफरत होती है मुझे तुम सब से।’ पापा कमरे से सटकर दरवाजे के पास ही खड़े थे, बोले, ‘चुप नहीं होगी क्या ?’ इस बार मीता डरकर चुप हो गई।
बाहर से आवाज नहीं आ रही थी। पापा शायद दरवाजे के पास ही बैठ गए थे। मम्मी पूर्णिमा की तरफ देखकर बोलीं- ‘छोड़-छाड़ दो, क्या होगा करके। दिन-भर कलह मचाएँगे। इस तरह क्या कुछ किया जा सकता है। जब वह समझते ही नहीं तो चोरी से मैं कब तक कोई-कोर्स-वोर्स करवा सकती हूँ।’

पूर्णिमा सोचने लगी- पापा को तो कुछ भी पसन्द नहीं। घर ना हो जेल हो जैसे। काले पानी की सजा। यह सब तो सोचते-सोचते वह सो गई। नींद में धीरे-धीरे अपने घुटने समेटने लगी। पाँवों को मोड़ते हुए उसने महसूस किया कि उसे डर लग रहा है। वह कुछ ऐसा कर रही है जो उसे नहीं करना चाहिए। मम्मी बीमार है। मीता भी बीमार हो गई है। पापा चीखते-चीखते पगला गये हैं, उसे लगा, वह बहुत अकेली है। झट से उसकी आँख खुल गई, अपने को समझाने लगी- नहीं, नहीं, उसके कारण कुछ भी नहीं हो रहा। जो हो रहा है, वह इस कारण कि वह हुए बिना नहीं रह सकता। मम्मी पापा को छोड़ क्यों नहीं देतीं। क्यों सहती हैं इतना। छिः मैं भी कितनी खराब बात सोचने लगती हूँ। क्या गलत सोचा है ! क्यों ऐसे आदमी के साथ रहे जो हमेशा अपना चलाता है। क्या मॉण्टेसरी कोर्स छोड़ दूँ। करूँगी भी कैसे ? रोज़-रोज़ का महाभारत कैसे झेला जाएगा ?


यदु बाबू बाजार की गमक


दूसरे दिन, पूर्णिमा की नींद अचकचाकर किसी चीज़ की खुशबू से खुली। नींद में बहुत देर से कोई पहचानी महक आ रही थी। आँखें खुलते ही समझ में आ गया। मम्मी ने काली राई और नीम पत्ता डाल दाल में छौंक लगाया है। पूर्णिमा तो सबकुछ अच्छा लगा। हठात् कुछ याद आया। वह काँप गई। रात का सारा दृश्य आँखों के सामने से गुजर गया; वह बुदबुदाई, पापा कहाँ हैं ? क्या कर रहे हैं ? बगल में मीता भी नहीं थी। पूर्णिमा जल्दी से चादर फेंक कमरे से बाहर की तरफ भागी। भागते हुए उसने महसूस किया कि उसकी पीठ और कमर में भयंकर दर्द है। बाहर, बैठक में कुहराम के बाद की शान्ति थी। एक गौरेया खिड़की पर रखे तुलसी के गमले में बैठी पत्तों को चोंच से खींच रही थी।

 पूर्णिमा ने ध्यान दिया, तुलसी का पौधा सावला हो गया था। पूर्णिमा कुछ दिनों से पूजाघर में रखे शिवलिंग पर मम्मी के कहने से कच्चा दूध चढ़ा रही थी। उस दूध से वह तुलसी का पौंधा भी सींच देती। शायद हरी-हरी तुलसी इसी कारण काली पड़ने लगी थी। कहीं मर न जाए ! उसने देखा, गौरेया एक-दो पत्ते खींचे और फुर्र से उड़ गई। पूर्णिमा की नजर बैठक में कुर्सी पर धँसे पापा पर पड़ी। वह कोई किताब पकड़े धीरे-धीरे पड़ रहे थे। उन्हें कुछ याद आया। जल्दी से उठे और अपने कमरे में चले गए। उनके चेहरे पर परेशानी थी। कमरे में अलमारी खोल कुछ ढूँढ़ने लगे। बार-बार अलमारी की बाईं दराज खोलते, कुछ देखते, फिर बन्द कर देते।  

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